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सोमवार, 7 नवंबर 2011

दोहे

इक मज़हबी हिन्दू न मुस्लमान बने वो !
हर  आदमी को चाहिए इन्सान बने वो  !!

पाल  तो  लेते  हैं  इक  माँ-बाप दस  औलाद  को !
पालना मुश्किल हुआ दस का मगर माँ-बाप को !!

इश्वर  अल्लाह एक हैं,  और एक है  मानव मूल !
रूप रंग और गंध भिन्न है फिर भी सब हैं फूल !!

आज की सडकों पर मिलते हैं गड्ढे- पत्थर- धूल
इन से तो पगडण्डी भली थी हिलती न थी चूल !

कुछ पैसे देकर ब्याज पे बन बैठे धनवान  !
मूल चूका कब पायेगा निर्धन है अन्जान !! 

चले धर्म की राह तो छूटे मोह माया और क्रोध !
 सरल प्रेम से ही होता है सच्चा जीवन शोध !!

सूरज प्रकाश राजवंशी
 

रविवार, 6 नवंबर 2011

-- बुढ़ापा --

ये  वक्ते -बुढ़ापा  हमें  इक  आँख  न  भावे 
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!

मोहताज़ बना देता है इन्सां को बुढ़ापा 
हर रोग लगा देता है  इन्सां को बुढ़ापा
इस रोग के आगे तो सभी पस्त हैं 'सूरज'
सब नीम हकीमों के धरे रह गए दावे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!

फुर्सत किसे है पास तो आता नहीं कोई
 कैसे कटे ये वक़्त बताता नहीं कोई
कहने को तो अपने हैं मोहल्ले के सभी लोग 
लेकिन कोई भी पूछने को पास न आवे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!

दुखता है कभी सर तो कभी दर्द में घुटना 
दर्दे- कमर से है भला क्या बैठना उठाना 
वैसे तो किसी तौर भी होती नहीं मेहनत
पर ज़हमत करे बगैर  इक साँस न आवे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!

मिलती है बुढ़ापे में इक चादर दरी खटिया 
बोलो जो कुछ तो कहते हैं बुड्ढा गया सठिया 
कहने को तो मालिक हैं घर के हर सामान के 
लेकिन सभी हैं दूर कोई पास न आवे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!

अल्लाह कुछ भी देना बुढ़ापा नहीं देना 
ये रोग तो हरगिज़ भी सरापा नहीं देना 
हों चार दिन बेशक हमें अच्छा है बचपना 
लेकिन ये बुढ़ापा खुदा इक रात न आवे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!

सूरज प्रकाश राजवंशी  (२९-१०-२०११, दिल्ली)