ये वक्ते -बुढ़ापा हमें इक आँख न भावे
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!
मोहताज़ बना देता है इन्सां को बुढ़ापा
हर रोग लगा देता है इन्सां को बुढ़ापा
इस रोग के आगे तो सभी पस्त हैं 'सूरज'
सब नीम हकीमों के धरे रह गए दावे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!
फुर्सत किसे है पास तो आता नहीं कोई
कैसे कटे ये वक़्त बताता नहीं कोई
कहने को तो अपने हैं मोहल्ले के सभी लोग
लेकिन कोई भी पूछने को पास न आवे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!
दुखता है कभी सर तो कभी दर्द में घुटना
दर्दे- कमर से है भला क्या बैठना उठाना
वैसे तो किसी तौर भी होती नहीं मेहनत
पर ज़हमत करे बगैर इक साँस न आवे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!
मिलती है बुढ़ापे में इक चादर दरी खटिया
बोलो जो कुछ तो कहते हैं बुड्ढा गया सठिया
कहने को तो मालिक हैं घर के हर सामान के
लेकिन सभी हैं दूर कोई पास न आवे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!
अल्लाह कुछ भी देना बुढ़ापा नहीं देना
ये रोग तो हरगिज़ भी सरापा नहीं देना
हों चार दिन बेशक हमें अच्छा है बचपना
लेकिन ये बुढ़ापा खुदा इक रात न आवे !
हम पे तो ऐ मालिक न कभी ये बला आवे !!
सूरज प्रकाश राजवंशी (२९-१०-२०११, दिल्ली)
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