ऐ दिल आ गया कहाँ तू दिलजलों की बस्ती में,
ये भी जले हुए और हम भी फुंके हुए हैं !
ऐसे भी इस जहान में आशिक हैं सरफिरे हैं,
खुद की ज़मीं को छोडके तेरे दर पड़े हुए हैं !
पत्थरों के इस शहर में जज़्बात भी हैं पत्थर,
इश्क और वफ़ा तो शहर से बाहर रुके हुए हैं !
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जिस जगह तू मिली थी उस जगह आया हूँ मैं,
तेरी यादें तेरे सपने छोड़ने आया हूँ मैं,
तेरे ख्वाबों, तेरे सजदों से बनाया था जिसे,
उस महल की हर कड़ी को तोड़ने आया हूँ मैं !!
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तुम मेरे तसव्वुर में दिन रात जगती हो क्यों,
कि साया धुप का "सूरज "से चाहती हो क्यों ?
ऐ शम्मा ये बता तेरी भी क्या तासीर उलटी है,
मैं जितना खेंचता हूँ दूर मुझसे खिंचती हो क्यों ?
सूरज राजवंशी "प्रकाश" (जनवरी - १९९५)