यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 26 जनवरी 2013

कुछ ग़ज़लें


आज तुमसे जो मुलाक़ात हो गई
मैंने समझा ख़ुदा से बात हो गई  !

फूल कागज़ के रक्खे हैं घर में
रंग ओ खुशबू तो गई बात हो गई  !

जिस तरह तूने मुझे छोड़ा है
सीधेपन की तो यहीं मात हो गई  !                         (23-09-2011)
                -----------------


तुम मुझसे इक वादा कर लो, मैं तुमसे इक वादा,
इसी बहाने मिला करेंगे, थोडा कभी ज्यादा  !

तुमने मुझसे क्या लेना था मैंने तुमसे क्या लेना
मुश्किल तभी ये हल होगी जब होगा नेक इरादा  !

जब भी मेरी छत पे आ के चिड़िया चहचहाती है
मुझको  मेरे  घर की मुश्किल लगती है कुछ  सादा  !                            (18-07-2011)
                 -------------------------








मैं ये सोचता हूँ !



न तू ही ख़फ़ा है, न मैं ही ख़फ़ा हूँ
ये है माज़रा क्या यही सोचता हूँ  !

अंधेरों के साये जमा हैं जहाँ पर
उजालों के रस्ते वहां मोड़ता हूँ  !

रहें हाथ खाली तो थामुंगा अच्छा
यही सोचकर मैं बुरा छोड़ता हूँ  !

भला है बुरा है सभी कुछ है उसका
है मेरा यहाँ क्या मैं ये सोचता हूँ  !

हो जाते हैं हल्के दिलो-दम ऐ "सूरज"
पकड़ने को बच्चे मैं जब दौड़ता हूँ  !

सूरज प्रकाश राजवंशी (रचनाकाल - 09-05-2012, चंडीगढ़)

सच से बिछुड़े



चलो सूरज यूँ ही कुछ पुण्य कमाया जाये,
सच से बिछुड़े हुए लोगों को मिलाया जाये  !

थक के जो बैठ गए ढलते हुए दिन की मानिंद
उनको उगते हुए सूरज से मिलाया जाये  !

पतंग और डोर का सम्बन्ध है बहुत गहरा
अब  ये भटके हुए इन्सान को सिखाया जाये  !

हाथ आये तो फिर छूटे  नहीं रिश्ते यारों
बड़ी ही नाज़ुकी से इनको निभाया जाये  !

जिंदा रहने को ज़रूरी हैं वो चीज़ें लाओ,
घर में कुछ गैरज़रूरी को क्यूँ लाया जाये  !

देखता  हूँ  मैं  बड़ी देर तलक "सूरज" को
ये वो किस्सा नहीं जो सबको सुनाया जाये  !




राम तो प्रेम से झूठा भी ग्रहण करते हैं !



ठंडा करते हैं  कभी दिल को गरम करते हैं,
यार आशिक़ भी जो करते हैं ग़ज़ब करते हैं  !

नज़र आता है कभी चाँद में महबूब का मुखड़ा
और  कभी  चाँद  में  सूरज  का  भ्रम करते हैं   !

मौलवी साहब तो करते हैं अमीरों को सलाम
हरम में  बैठ,  के  जेबों को  गरम  करते हैं  !

वो अक्लमंद हैं, जो चलते नहीं सीढ़ी चालें,
और हम बेवकूफ़, सीधा जो सफ़र करते हैं  !

प्रेम में झूट तो चलता नहीं लेकिन सूरज
राम तो प्रेम से झूठा भी ग्रहण करते हैं  !

कुछ ग़ज़लें



जीना मुहाल है मेरा, मरना मुहाल है,
जो हाथ में आया नहीं उसका मलाल है  !

कहते हैं ये मेहमां कि हम न जायेंगे अभी,
अब तक तेरे घर में बचा आटा है दाल है   !

है बाल से बारीक भी,  धरती से बड़ा भी
नज़रों में जो आता नहीं उसका जमाल है  !
             ---------------------


तुम साथ हो मेरे तो किस बात का डर है,
हर गाम पे मंजिल है हर इक गाम  डगर है !

हम ढूँढने निकलेंगे तो उसे  ढूँढ  ही लेंगे,
लगता है ये मुश्किल, बहुत आसान  मगर है !

है कौन वो गुस्ताख़ गिराता है बिजलियाँ ?
है काम ये पहले का मगर आज असर है  !
            ---------------------

रात को जब हम सोये थे
तारे सपनों में खोये थे  !

अब फल होंगे आम कहाँ ?
बीज बबूल के बोये थे  !

अब जाने पर न रोयेंगे,
हम जब आये तब रोये थे  !
          --------------------------

"सूरज प्रकाश राजवंशी "

फ़कीरी से आबाद हो गए

महलों के जो अमीर थे, बरबाद  हो गए
जंगल में हम फ़कीरी से आबाद हो गए  !

दोस्त में, दुश्मन में, कहाँ फ़र्क रहा अब,
दिल की बुरी हर सोच से आज़ाद हो गए  !

भर भर दिए इंसान को कुदरत ने ख़ज़ाने,
संभाले नहीं इंसान ने, बरबाद हो गए  !

छीना था राज राम से कैकयी ने तो उसके,
सपने भरतमिलन से सब बरबाद हो गए  !

आये थे जब जहान में नाशाद थे बहुत,
जाते हुए अल्लाह कसम, शाद हो गए  !

 कैसे बचेगा लुटने से अब घर तेरा सूरज,
डाकू जो थानेदारों के दामाद हो गए  !

सूरज प्रकाश राजवंशी  (रचनाकाल - 02-09-2012, दिल्ली)

शहर में ज़िन्दगी हर रोज़ मुझे ठगती है


अब तो छाया भी कड़ी धुप मुझे लगती है,
ये सज़ा शहर में रहने की मुझे लगती है  !

गाँव ने दी मुझे हर चीज़ बिना मांगे ही,
शहर में ज़िन्दगी हर रोज़ मुझे ठगती है  !

मैं भी इतराता हूँ खेतों की तरह बारिश में,
जब भी माँ प्यार से आँचल में मुझे ढकती है  !

सोया की नहीं लाल मेरा ठीक से "सूरज"
इस कशमकश में माँ तो सारी रात जगती है  !

सूरज प्रकाश राजवंशी (रचनाकाल - 22-08-2012, दिल्ली)