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शनिवार, 26 जनवरी 2013

शहर में ज़िन्दगी हर रोज़ मुझे ठगती है


अब तो छाया भी कड़ी धुप मुझे लगती है,
ये सज़ा शहर में रहने की मुझे लगती है  !

गाँव ने दी मुझे हर चीज़ बिना मांगे ही,
शहर में ज़िन्दगी हर रोज़ मुझे ठगती है  !

मैं भी इतराता हूँ खेतों की तरह बारिश में,
जब भी माँ प्यार से आँचल में मुझे ढकती है  !

सोया की नहीं लाल मेरा ठीक से "सूरज"
इस कशमकश में माँ तो सारी रात जगती है  !

सूरज प्रकाश राजवंशी (रचनाकाल - 22-08-2012, दिल्ली)

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