महलों के जो अमीर थे, बरबाद हो गए
जंगल में हम फ़कीरी से आबाद हो गए !
दोस्त में, दुश्मन में, कहाँ फ़र्क रहा अब,
दिल की बुरी हर सोच से आज़ाद हो गए !
भर भर दिए इंसान को कुदरत ने ख़ज़ाने,
संभाले नहीं इंसान ने, बरबाद हो गए !
छीना था राज राम से कैकयी ने तो उसके,
सपने भरतमिलन से सब बरबाद हो गए !
आये थे जब जहान में नाशाद थे बहुत,
जाते हुए अल्लाह कसम, शाद हो गए !
कैसे बचेगा लुटने से अब घर तेरा सूरज,
डाकू जो थानेदारों के दामाद हो गए !
सूरज प्रकाश राजवंशी (रचनाकाल - 02-09-2012, दिल्ली)
जंगल में हम फ़कीरी से आबाद हो गए !
दोस्त में, दुश्मन में, कहाँ फ़र्क रहा अब,
दिल की बुरी हर सोच से आज़ाद हो गए !
भर भर दिए इंसान को कुदरत ने ख़ज़ाने,
संभाले नहीं इंसान ने, बरबाद हो गए !
छीना था राज राम से कैकयी ने तो उसके,
सपने भरतमिलन से सब बरबाद हो गए !
आये थे जब जहान में नाशाद थे बहुत,
जाते हुए अल्लाह कसम, शाद हो गए !
कैसे बचेगा लुटने से अब घर तेरा सूरज,
डाकू जो थानेदारों के दामाद हो गए !
सूरज प्रकाश राजवंशी (रचनाकाल - 02-09-2012, दिल्ली)
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